मैं स्त्री

कभी अपनों ने,
कभी परायों ने,
तो कभी अजनबी सायों ने,
तंग किया चलती राहों में।
          कभी दर्द में,
          कभी मर्ज़ में,
           तो कभी फर्ज़ में,
           वेदना मिली इस धरती के नर्क में।
कभी शोर में,
कभी भोर में,
तो कभी ज़ोर में,
संताप सहे अपनी ओर से।
            कभी अनजाने में,
            कभी जान में,
            तो कभी शान में,
          कुचले गए हैं अरमान झूठी पहचान में।
कभी प्यार से,
कभी मार से,
तो कभी दुलार से,
छली गई हूं मैं स्त्री इस संसार में।

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