बीस रुपए
मेरे पैर स्टेशन की तरफ दौड़े जा रहे थे। ट्रेन हॉर्न दे चुकी थी। वो स्टेशन के प्लेटफॉर्म से लगभग एक किलोमीटर दूर होगी। मैं अपनी धुन में कि ट्रेन पकड़नी है और ट्रेन अपनी धुन में कि स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर पहुंचना है। मैं दस कदम आगे आ चुकी थी उस जगह से जहां एक वृद्धा अपने कुछ गंदे व मलिन कपड़ों, कम्बल व थोड़े से सामान के साथ सड़क के किनारे बैठी थी। उसका चेहरा मैल और आंखें कीचड़ से भरी थीं। रात की थकन थी या नींद नहीं आयी थी या ज़िन्दगी की थकन थी! उससे मेरी एक नज़र चलते - चलते मिली थी। लगा कोई पागल या मानसिक विक्षिप्त है। दस कदम आगे आकर उसे मुड़कर फिर से देखा लेकिन उधर से सिर्फ मेरी नज़र से नज़र ही मिली, कोई प्रतिक्रिया नहीं, न ही कोई अपेक्षा भरी आवाज़ अायी न ही कोई मार्मिक शब्द भिक्षा से संबंधित।
मेरी पर्स में दान से संबंधित कुछ राशि पड़ी थी। मैंने उसमें से बीस रुपए निकालकर , वापस आकर उसके हांथ पर रख दिए।तनिक हर्ष दिखा वृद्धा के चेहरे पर और मेरे मुख पर संपूर्ण दृष्टि फेरकर एक प्रश्न मेरे कानों तक वृद्धा का पहुंचा - "बेटा किसके यहां से आयी हो?" मैंने बिना प्रतिउत्तर दिए कहा - "रख लो।" और अपनी धुन में विचारशून्य वापस स्टेशन की तरफ तेज़ कदमों से चलने लगी। बिना किसी हर्ष या अवसाद के, ट्रेन का हॉर्न नजदीक आ रहा था।
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