कैसा अन्तर्द्वन्द!
कैसा अन्तर्द्वन्द है,
दिल में जज़्बात बंद है।
उलझन सुलझती नहीं,
द्वन्द है मन में कई।
मुझसे मेरा ही द्वन्द है,
हार की गति मंद है।
करने को कुछ मन चाहता,
पर हो कुछ जाता।
हारती हूं लगातार मैं,
एक नहीं कई बार मैं।
विचारों का स्तर बनाती हूं,
पर स्तर तक न पहुंच पाती हूं।
सोचा तो कभी होता नहीं,
जाने क्या - क्या है सही!
ऐसी राह पर चली हूं सदा,
विचारों की कीमत की है अदा।
व्यवहार विचार नहीं पाता,
विचार व्यवहार नहीं हो पाता।
कैसा अन्तर्द्वन्द मन का,
अंदर ही अंदर बनता।
लाख कोशिश कर लूं,
कैसे मैं इसको हर लूं!
ऐसा जोर का अन्तर्द्वन्द है,
मन मेरा मैदान- ए- जंग है।
आवाज़ सुनायी देती बस मुझे,
शोर कितना है कोई यह बूझे।
परिणाम सदा है मेरा,
कौन देता है इस पर पहरा।
मुझे छोड़कर सब कुछ है शांत,
अन्तर्द्वन्द एक है जो अशांत।
कैसे भी तर्क - वितर्क कर लें,
हर बार सुकून को मेरी यह हर ले।
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